वो ज़िन्दगी जो थी अब तेरी पनाहों में
चली है आज भटकने उदास राहों में |
तमाम उम्र के रिश्ते घड़ी में ख़ाक़ हुए
न हम हैं दिल में किसी के न हैं निगाहों में |
ये आज जान लिया अपनी कमनसीबी ने
कि बेग़ुनाही भी शामिल हुई ग़ुनाहों में |
किसी को अपनी ज़रूरत न हो तो क्या कीजे
निकल पड़े हैं सिमटने क़ज़ा की बाँहों में |